अतिशा एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु और धर्म-प्रचारक था. अतिशा का जन्म बंगाल (फिलहाल बांग्लादेश) स्थित एक गांव में हुआ. उसके पिता का नाम कल्याण श्री और माता का नाम पद्मप्रभा था. माता-पिता ने उसका नाम चन्द्रगर्भ रखा था.
प्रारंभिक जीवन में अतिशा साधारण गृहस्थ और तारादेवी का उपासक था. युवा होने के बाद उसने बौद्ध सिद्धान्तों का अध्ययन किया और शीघ्र ही बौद्ध धर्म का प्रचुर ज्ञान अर्जित कर लिया. उड्यन्तपुर-बिहार के आचार्य शीलभद्र ने उसे ‘दीपंकर श्रीज्ञान’ उपाधि से विभूषित किया. अतिशा आचार्य के यहां अध्ययन कर रहा था. बाद में तिब्बती लोगों ने उसे अतिशा नाम से पुकारना शुरू कर दिया. शीघ्र ही लोग उसके असली नाम चन्द्रगर्भ को भूल गये और वह अतिशा दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से अमर हो गया. वह ३१ वर्ष की आयु में भिक्षु हो गया और अगले १२ वर्ष उसने भारत और भारत के बाहर अध्ययन और योगाभ्यास में बिताये. वह पेगू (बरमा) और श्रीलंका गया. विदेशों में अध्ययन करने के बाद जब वह लौटा तो पालवंश के राजा न्यायपाल ने उसे विक्रमशिला बिहार का कुलपति बना दिया.
अतिशा की विद्वत्ता और धर्मशीलता की ख्याति देश-देशान्तर में फैली और तिब्बत के राजा ने तिब्बत आकर वहां फिर से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उसे निमंत्रित किया. उस समय अतिशा की अवस्था 60 वर्ष की थी, लेकिन तिब्बत के राजा अनवरत आग्रह वह अस्वीकार नहीं कर सका. दो तिब्बती भिक्षुओं के साथ अतिशा ने विक्रमशिला से तिब्बत की कठिन यात्रा नेपाल होकर पूरी की.
तिब्बत में उसका राजकीय स्वागत किया गया. थालोंग का मठ उसको सौंप दिया गया, जहां भारी संख्या में तिब्बती भिक्षु जमा हुए. अतिशा ने १२ वर्ष तक तिब्बत में रहकर धर्म का प्रचार किया. उसने स्वयं तिब्बती भाषा सीखी और तिब्बती और संस्कृत में एक सौ से अधिक ग्रन्थ लिखे. उसकी शिक्षाओं से तिब्बत में बौद्ध धर्म में प्रविष्ट अनेक बुराइयां दूर हो गई. उसके प्रभाव से तिब्बत में अनेक बौद्ध भिक्षु हुए जिन्होंने उसके बाद भी बहुत वर्षों तक धर्म का प्रचार किया. तिब्बती लोगों ने उसकी समाधि ने-थांग मठ में राजकीय सम्मान के साथ बनाई. तिब्बती लोग अब भी अतिशा का स्मरण बड़े सम्मान के साथ करते हैं और उसकी मूर्ति की पूजा बोधिसत्व की मूर्ति की भांति करते हैं. (980-1054)