प्रमुख सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों में ऐसा क्या है लोग उनसे चिपके रहते हैं. यह इस दौर का यक्ष प्रश्न बन गया है. इस बारे में अलग अलग तर्क दिए जा रहे हैं. विशेषकर बच्चों व विद्यार्थियों में इन वेबसाइटों के बढ़ते चलन के प्रति आगाह किया जा रहा है। कर्मचारियों द्वारा कार्यालयों में इस तरह की वेबसाइटों के नकारात्मक असर के बारे में भी अनेक बातें सामने आई हैं।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने मई 2012 में अध्ययन किया जिसमें कहा गया कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर अपनी राय देना या बहस करना दिमाग के लिए वैसा ही होता है जैसे खाना खाना या फिर सेक्स. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के दो न्यूरोसाइंटिस्ट डायना तामीर और जेसन मिशेल एक शोध में इस बारे में अध्ययन किया और निष्कर्ष निकालते हुए सोशल साइटों के इस्तेमाल को खाना खाने या सेक्स के बाद मिलने वाली संतुष्टि जैसा बताया.
इसके अनुसार फेसबुक पर अपनी या औरों की ‘वॉल’ पर कुछ लिखने से लोगों को खुशी का अहसास होता है और अगर कुछ ‘लाइक’ या दोस्तों की प्रतिक्रिया मिल जाए तो कहना ही क्या. शोध में कहा गया है कि जब लोग अपने बारे में कुछ लिखते हैं तो उस से दिमाग में एक हलचल होती है और डोपामीन नाम का रसायन सक्रिय हो जाता है. इस रसायन को आनंद के भाव से या शाबाशी मिलने की आस लगाने से जोड़ कर देखा जाता है.
वैसे खासकर फेसबुक को लेकर अनेक अध्ययन हाल ही में आये हैं जिनमें इसके दूसरे पहलू यानी डार्क साइड पर प्रकाश डाला गया है. सोशल नेटवर्किंग और सामाजिक जीवन तथा फेसबुक के हमारे व्यवहार पर असर का अध्ययन नियमित रूप से सामने आ रहा है। यह अलग बात है कि तमाम चेतावनियों के बावजूद फेसबुक हो या ट्वीटर, व्हाटसएप हो या स्नैपचैट इनका इस्तेमाल समय व उपयोक्ताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।