ब्लैक बाक्स वास्तव में एक डिब्बेनुमा डाटा रिकार्डर होता है. इसमें मैगनेटिक टेप होती है जिस पर उडान से जुडे यंत्रों, ईंधन और पायलट की बातचीत या संदेश का ब्यौरा रिकार्ड होता रहता है. किसी भी तरह अनहोनी में विमान के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर इसमें मौजूदा डाटा सालों साल तक सुरक्षित रहता है. यह ब्लैक बाक्स इस तरह बनाया जाता है कि आग लगने, पानी में डूबने, भारी दबाव में या रेडियोधर्मिता से इस पर कोई असर नहीं होता. इसका डाटा सुरक्षित रहता है. किसी भी तरह की दुर्घटना के बाद विशेषज्ञ इसमें मौजूदा डाटा से वास्तविक कारणों की पडताल करते हैं. इसी से पता चल पाता है कि वास्तव में विमान में हुआ क्या था. वैसे यह डिब्बा सामान्य रूप में भले ही कहीं भी हो, तीस दिन तक अपने रिसीवर को संकेत भेजता है. इस डाटा का इस्तेमाल विमानों की ईंधन क्षमता बढाने सहित अन्य कामों में भी लिया जाता है.
वैसे भले ही फलाइट डाटा रिकार्डर का नाम ब्लैक बाक्स हो इसका रंग नारंगी होता है. आग तथा अन्य दबावों से बचाने के लिए इस पर नारंगी रंग का चटक रंग किया जाता है. इसका एक और कारण दुर्घटना आदि की स्थिति में मलबे में नारंगी रंग को आसानी से पहचाना जाता सकता है.
2010 के आसपास सागर के हरि सिंह विश्वविद्यालय में ब्लैक बाक्स नुमा ही एक यंत्र तैयार किया जा रहा है जो रेल इंजिनों में इस्तेमाल किया जा सकेगा. यह यंत्र रेल इंजिन के ब्लैक बाक्स के रूप में काम करेगा और भविष्य में किए जाने वाले सुरक्षा उपायों की दिशा तय करेगा.
ब्लैक बाक्स या फलाइट डाटा रिकार्डर की खोज का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता. इस दिशा में पहला कदम और शुरआती कदम मेरिगन फलाइट टेस्ट सेंटर, फ्रांस के फ्रांकोइस हुसेनाट और पाल ब्यूडियोइन ने उठाया. इन्होंने टाइप एचबी फलाइट रिकार्डर पेश किया जो फोटो आधारित उपकरण था. पहली बार ऐसा ब्लैक बाक्स 1956 में डा डेविड वारेन ने बनाया जो एयरानाटिक्ल रिसर्च लेबोरेटरी, मेलबर्न से जुडे थे और जिस बक्से में फलाइट डाटा रिकार्डर एफडीआर : सीवीआर यानी काकपिट वायस रिकार्डर दोनों थे. वैसे डा वारेन रसायन शास्त्री थे और और उनकी विशेषज्ञता थी विमान ईंधन के क्षेत्र में. लेकिन वे उस उच्चस्तरीय समिति के सदस्य थे जो डे हेविलेंड डीएच विमानों की दुर्घटनाओं के कारणों की पडताल में जुटी थी.
साल 1953 व 1954 में कई भयावह दुर्घटनाओं के पूरे बेडे को जमीन पर उतारना पडा और चूंकि दुर्घटनाओं में कोई जीवित नहीं बचा था इसलिए डा वारेन को लगा कि एफडीआर जैसी कोई चीज होनी चाहिए. अनेक कारणों के चलते डा वारेन की संबंधित रपट धूल फांकती रही और 1962 में उन्हें अभियंताओं की एक टीम मिली जिसमें लेन सीअर, वेली बासवेल तथा केन फ्रेजर थे . इसी टीम ने प्रणाली बनाई. आस्ट्रेलिया पहला देश था जिसने काकपिट वायस रिकार्डिंग को अनिवार्य कर दिया.
एफडीआर बनाने के लिए कडे नियम और मानक हैं. इनमें यह भी शामिल है कि रिकार्डर बेहद तीव्र गति, आग, गहरे समुद्र्र में पानी के दबाव, बेहद कम तापमान या किसी भी तरह के उत्सर्जन की प्रभावों से अप्रभावी रहना चाहिए. यानी कुछ भी हो एफडीआर का डाटा सुरक्षित रहना चाहिए. अमेरिकी संघीय निमयों के अनुसार एफडीआर के लिए फिलहाल 88 मानक हैं. आमतौर पर एक रिकार्डर लगातार चलने पर 17 से 25 घंटे की रिकार्डिंग कर सकता है. स्टेनलेस स्टील या टाइटेनियम की दोहरी परत से बना यह बाक्स प्राय: विमान के पिछले हिस्से में होता है ताकि दुर्घटना के समय संभावित दबाव या नुकसान को कम से कम किया जा सके. वैसे बदलते वक्त और तकनीक के साथ ब्लैक बाक्स के अत्याधुनिक संस्करण भी पेश किए जा रहे हैं.